संकाळू घणौ है मन

दुख-दैनगी उदासी में

ज्यूं-त्यूं धीजौ साधै

अर पांणी पैलां पाळ कोनी बांधै

कदै मण-मण रा बोल काढ़ै

तौ कदै म्हांनै

अणछक मूंन री समाध

में गैरौ गाडै

पण जद-कद म्हैं अणमणों होय’र

अफाळा करूं

जिण नै देख्यां ताप आवै

उण री जांन चढूं

कै कौड़ीधजां रै बिचाळै

ऊभाणौ हांडूं

तौ मन ईज है जिकौ

म्हांनै समझावै कै

यूं दूमणौ व्हियां पार नीं पड़ै!

देख धरणी माथै च्यारूं मेर

कित्तौ सुख।

संवेट इण नै संवेट

अै कोडाया फूल

अै पोमाया तारा

अै सौरम-सूंगी पूंन रा

झीणां-झीणां झोला

अै अकास रा

न्यारा निरवाळा रंग

अबोला

अै खेतां में रमता किरसांण

अै फैकटरी में जाय’र थमता मजूर

अै पिलंग रा पागा घड़ता सुथार

अै लवै री चिणगियां सूं लड़ता लवार

अै सगळा थांरा

थूं आं रौ

इतरौ सुख है इण धरणी माथै

कै पीड़ री आंच मीठी लागै

जे कोई आपरै अंतस री चांदणी में निसंक जागै।

स्रोत
  • पोथी : पगफेरौ ,
  • सिरजक : मणि मधुकर ,
  • प्रकाशक : अकथ प्रकासण, जयपुर
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