दुख पर कवितावां

दुख की गिनती मूल मनोभावों

में होती है और जरा-मरण को प्रधान दुख कहा गया है। प्राचीन काल से ही धर्म और दर्शन ने दुख की प्रकृति पर विचार किया है और समाधान दिए हैं। बुद्ध के ‘चत्वारि आर्यसत्यानि’ का बल दुख और उसके निवारण पर ही है। सांख्य दुख को रजोगुण का कार्य और चित्त का एक धर्म मानता है जबकि न्याय और वैशेषिक उसे आत्मा के धर्म के रूप में देखते हैं। योग में दुख को चित्तविक्षेप या अंतराय कहा गया है। प्रस्तुत संकलन में कविताओं में व्यक्त दुख और दुख विषयक कविताओं का चयन किया गया है।

कविता92

अबूलेंस

देवीलाल महिया

बीज नै उगणो पड़सी

भीम पांडिया

दुख रो कारण

राजकुमारी पारीक

कदर

भोगीलाल पाटीदार

पगरखी

भगवती लाल व्यास

सुखसाज

मणि मधुकर

आठौ काळ

रेवतदान चारण कल्पित

हलाल रो मांस

गोरधन सिंह शेखावत

पांगळी

मणि मधुकर

जोग

मणि मधुकर

धरती री मुळक

रमेश मयंक

गंदी हवा

चंद्रशेखर अरोड़ा

पाप-बोध

सत्यप्रकाश जोशी

अमूझणी भर्‌या दिन

भगवती लाल व्यास

थारी जुर्‌रत कोई

देवीलाल महिया

नुसखौ

चन्द्र प्रकाश देवल

पका तिरस नै

रेणुका व्यास 'नीलम'

मन री पीड़ा मन में पाची

संतोष कुमार पारीक

परवाणां

ज़ेबा रशीद

मन नै मारण रो उपाव

प्रिया शर्मा

दुःख

खेतदान

दुख क्यूं व्है ?

जुगल परिहार

पांगळा भाई

गोरधन सिंह शेखावत

दोय घंट

दीपचन्द सुथार

बिरह

अनीता सैनी

दुख

दुष्यन्त जोशी

बडा आदमी

प्रदीप भट्ट

आग रा छांटा

त्रिभुवन

बुणगट

भगवती लाल व्यास

म्हारी डायरी

प्रमिला शंकर

अपरंच

सत्यप्रकाश जोशी

करां कांई

चन्द्र प्रकाश देवल

बेम्मार

मणि मधुकर

बहुवचन

चन्द्र प्रकाश देवल

अेक ठहर्योड़ी दोप’री

गोरधन सिंह शेखावत

हथेळी रा छाला

मनोज शर्मा

ओळखाण

मणि मधुकर

बळीतौ

मणि मधुकर

पिसतावो

कन्हैयालाल सेठिया

अंधारै रा घाव

पारस अरोड़ा

मीठी मायड़ भासा

निर्मला राठौड़

रंग-बदरंग

गोरधन सिंह शेखावत

कूंख री कळियां

श्याम सुन्दर टेलर

आंसूवां री भासा

ज़ेबा रशीद

अणबोली बात

विजय राही

जुझारू रो सवाल

रतना ‘राहगीर’