दुख पर कवितावां

दुख की गिनती मूल मनोभावों

में होती है और जरा-मरण को प्रधान दुख कहा गया है। प्राचीन काल से ही धर्म और दर्शन ने दुख की प्रकृति पर विचार किया है और समाधान दिए हैं। बुद्ध के ‘चत्वारि आर्यसत्यानि’ का बल दुख और उसके निवारण पर ही है। सांख्य दुख को रजोगुण का कार्य और चित्त का एक धर्म मानता है जबकि न्याय और वैशेषिक उसे आत्मा के धर्म के रूप में देखते हैं। योग में दुख को चित्तविक्षेप या अंतराय कहा गया है। प्रस्तुत संकलन में कविताओं में व्यक्त दुख और दुख विषयक कविताओं का चयन किया गया है।

कविता128

अबूलेंस

देवीलाल महिया

बंटवारो

भगवती लाल व्यास

बीज नै उगणो पड़सी

भीम पांडिया

सबदां री हद रै मांय

आईदान सिंह भाटी

हेत री डोर

इन्द्र प्रकाश श्रीमाली

ओ कांई ढाळो है देस रो

सत्येंद्र चारण

हलाल रो मांस

गोरधन सिंह शेखावत

करां कांई

चन्द्र प्रकाश देवल

बेम्मार

मणि मधुकर

वो भेजै थनै

अर्जुन देव चारण

उडीक

पारस अरोड़ा

अथड़ातु मन

भोगीलाल पाटीदार

दरद

रमेश मयंक

दुख

अर्जुन देव चारण

चिड़कली

अशोक परिहार 'उदय'

पारधी

पूनमचंद गोदारा

सीता

अर्जुन देव चारण

स्सै फळसा मोन

मोहन आलोक

हूक री कूक

मोहम्मद सदीक

ओळूं आसी

संदीप 'निर्भय'

दरद

पुनीत कुमार रंगा

म्हारो दरद

चन्द्रकान्ता शर्मा

बगत री बात

ज़ेबा रशीद

म्हारो घर

पुनीत कुमार रंगा

म्हारी जग्या राख'र देख

श्याम निर्मोही

कोढियो काळ

रामनिवास सोनी

पनजी मारू

गोरधन सिंह शेखावत

तड़फता दोय जीव

देवीलाल महिया

अेकली

मणि मधुकर

बारै कठै लाधै?

भारती कविया

मथारौ

नाथूसिंह इंदा

कविता री मौत

पूर्ण शर्मा ‘पूरण’

बहुवचन

चन्द्र प्रकाश देवल

अेक ठहर्‌योड़ी दोपरी

गोरधन सिंह शेखावत

औ जीवण जीणो पड़सी

अवन्तिका तूनवाल

हथेळी रा छाला

मनोज शर्मा

भरम गांठ

सत्यनारायण इन्दौरिया

मै’सूसो

मोहन आलोक

हेत रो हींडौ

कृष्णा जाखड़

अचरज

पारस अरोड़ा

ओळखाण

मणि मधुकर

बळीतौ

मणि मधुकर

पिसतावो

कन्हैयालाल सेठिया