साधो ऐसी खेती करिये, ताते काल अकाल मरिये॥टेक॥

रसना का हल बहल मन पवना, बिरह भोम ताँ बाही।

राम नाम का बीज बोहाया, मेरे सतगुरु कला सिखाई॥

ऊगा बीज भया कछु मोटा, हिरदा में डहकाया।

किया निनाण भरम सब भागा, जहाँ प्रेम नीर बरसाया॥

नाभी माहिं भया कछु दीरघ, पोटा सा दरसाया।

अरध कमल में सिराँ नीकसी, गिगन नाम गरजाया॥

मेर डंडि हुई डाँडी नीकसी, ता ऊपर परकासा।

बीज बुहा था बिरह भोम में, फल लागा आकासा॥

परथम जहाँ साख धुन उपजी, मन के अट रत जागी।

गाजै गिगन सुधा रस बरसै, जाहाँ नोबत बागी॥

त्रुगटी चढ्या अनँत सुख पाया, मन की ऊणत भागी।

उपजै ग्यान ध्यान सत बरतै, जहाँ सुखमन चबवा लागी॥

चढ़ आकास सकल जग देख्या, ज्यूँ गत थी सोइ जाणी।

सम्पत मिली बिपत सब भागी, जहाँ ब्रह्म जोत दरसाणी॥

जम गया दूध ब्रह्म कण निपज्या, सुरत अबेरणहारी।

हुई रास तब बरतण लागा, आणद उपज्या भारी॥

निपज्या नाद भवन भर राख्या, ता मध सुरति समाई।

जन दरियाव न्रिभै पद परस्या, तहाँ काल पहुँचे आई॥

स्रोत
  • पोथी : दरियाव- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : संत दरियाव जी ,
  • संपादक : ब्रजेंदरकुमार सिंहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
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