1

राता पीळा रंग बखरग्या
सूरज कै ऊपर नीचै...
धरती, सूरज कै तांईं
ऊपर सूं अब नीचै खींचै
गोधूळी की धूळ रमगी
डंगर कै बीचै-बीचै!

पीळापण छाग्यो डूंगर मैं,
ढीलापण आग्यो जळधर मैं,
अर सूरज तो सरवर मैं मूंडो देखतो ई डूबग्यो॥


2
करणां की सुरखी नै पाणी
रंग्यो खून का रंग मैं
स्योजी का पंडा हर-हर
बम-बम-बम बोल्या संग मैं
पिस्ता ओर बदामां सारी
घुटी कपड़छण भंग मैं

झालर मंदर मैं बोलगी,
तारां नै आंख्यां खोलदी,
अब स्योजी सोग्या पंडौ पाछो घर की आडी घूमग्यो॥


3

गायां दे बागोल बाछड़ा
गाद्यां की फांद्यां खोलै
ग्वाळ दूवता दूध ओर
झींगर झींझीं-चीचीं बोलै
आतो देख पिया नैं, हिवड़ो
हरखै अर तन-मन डोलै...

दन भर का बछड़्या गळै मल्या,
तारां का गुच्छा बखर खुल्या,
अर चन्दरमा बादळियां बीचै खेलबा मैं झूमग्यो॥

स्रोत
  • पोथी : सरवर, सूरज अर संझ्या ,
  • सिरजक : प्रेमजी ‘प्रेम’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य संगम अकादमी ,
  • संस्करण : Pratham
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