अब्दुल समद ‘राही’
चावा कवि-उल्थाकर।
चावा कवि-उल्थाकर।
आभै साम्हीं भाळ भायला
बगत रै सागै चालणो पड़सी
गरीब गुरबा नै क्यूं सतावो भाया
हर अेक आंखियां में डर है
जीवण रो दै मोल भलोड़ा
जिन्दगी
जूण भलां खुसियां सूं भरलै
म्हारै गांव में
मिनखां में वो चाव कठै
मिनखां रो है काळ अठै
प्रीत मनड़ै में जगा
प्रेम परख जतलाणो पड़सी
प्रेम वाळी निजर में खुस हूं
सारै जग री छोड़ी लाज