जिन्दगी रा अणगिणत
वसंत देख्यां पछै भी
म्हैं देखूँ हूँ क
एक डाळ माथै
एक फूल
हिलर्यो है
म्हारै जनम सूँ पेलां
अर म्हारी
मृत्यु रै बाद भी
यो फूल यूँ ही'ज
हिलतो रेवेला
कुदरत रै एकलै हाथ
ज्यूँ यो फूल।
म्हनै अचरज यो है
क अणगिणत बरसां में
इण फूल रै साथै
हिलवा वाळौ कोई और
फूल नीं जनम्यो?
अणी पीड़ नै
कै तो वो फूल
मलय पून रा झोंका
बरखा री झड़ियाँ
अर पतझड़ रा प्रहार
सब एकलो ही
क्यूँ झेले है यो फूल?
ऋतुमती हवा रा
नखरा
प्रयंजन री ठोकराँ
ऊषा रा संकेत
रात रा समरपण
कद तक झेलेला
यो एकलो फूल?
यो एकलो हाथ-फूल
लगातार हिलै है
जो लगातार हिलै है
वो नीं बोल कर भी
घणकरी बातां बोले है
गति तो खुद ही वाणी है
वाणी है वठै चेतनता है
चेतनता'र वाणी
लियां-दियां यो हाथ
निर्वाक् क्यूँ है?
या प्रकृति री परम्परा
सरूप यो
सनातन पुष्प-हाथ
देह री डाळ पे
अणबोल्यो बोल है
जिन्दगी रै सारै
जस-अपजस
पाप-पुण्य
ताप-परिताप
कर्म-अकर्म
रो अबूझ अभिलेख
यो पुष्प
प्रकृति रो घोषणा पत्र
यो हाथ
मनख रै अस्तित्व रो
ऐलान
उठै तो सृष्टि धूजै
गिरै तो आँधियाँ थमै
यो हाथ
एकलो हाथ हिल-हिल ने कैवै है—
एक और औसर है, चूक मत
पराजय बोधग्रस्त
समय रा अरजुण
अनाचारी जयद्रथ रै
वध सूँ अब चूक मत।