कठै गया बै दिन

जद मा सारती

आपरै हाथां उपाड़्यो

नीम रो काजळ

म्हारी आंख्यां में।

कत्तो मोवमों-सावळ

दीखतो बां दिनां दिन

आंख्या में बसता

हेत अर भेळप रा

सतरंगी सुपना

जका देखता म्हे

पड़तख दाईं रात्यूं!

बरस बीतग्या

आंख्यां में नीं ऊतरी

बा सुपनां आळी रात

मा तूं ही जद

आंवता सुपना

दिन भी बै

जकै दिनां

तूं सारती काजळ

अब तो ऊगै

आंख्या में

अबखायां रा पड़बाळ!

स्रोत
  • पोथी : बिणजारो ,
  • सिरजक : ओम पुरोहित ,
  • संपादक : नागराज शर्मा ,
  • प्रकाशक : बिणजारो प्रकाशन ,
  • संस्करण : अंक 36
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