जिवड़ा जाय कहा तूँ रहसी वे।
करणहार करतार न जांणयौ, सलिल मोह संगि बहसी वे॥
काची परख सराफी खोटी, ता तैं परदुख सहसी वे।
राम नाम निज भेद न जाणयों, काल चटा तैं गहसी वे॥
हरि प्रीतम सूँ प्रीति न बांधी, झूठ तहाँ जाइ ठहसी वे।
जब जम आया झूठ बिलाया, रसन तालवै फहसी वे॥
जब इहि जीवड़ै किया पयाणा, बहुड़ि न यहु तन लहसी वे।
जन हरीदास माया अपराधिणि, बहौत भांति करि दहसी वे॥