मन माठा,
दुख काठा,
टाळी टळै न टेम।
और गुरुजी,
सीख सिखाके
तोड़ै खुद ही नेम।
खंडित हुयग्या नेम,
मूळ सूं रूंख उखड़ग्यो।
बात पुराणी झुकगी,
अर गडोळ्याँ चाली।
पसरैली जद बात—
रात आपै कट जासी!
आस एक,
अब किरण घुटेड़ी—
पळको मार, फेर जी जासी!
कड़ पतळी बातां री,
मुट्ठी में अब आगी।
आख्यां में तिरता सपनां री
झांई जागी।
हीणा मिनख
बावड़या ले हाथां में सेली।
इबकै बिना रंग सूं
दुखड़ा होळी खेली।