नींतर 'खुर्रमशहर'-

अर 'बसरा' रै बिचाळै बिळली

ईं आग माथै

बळतै कोई जिलफ नै

जे बचा तो सकै हो साथै।

म्हैं गूंगौ हूं

कोई अणघड़ भाठै री भांत

के कौरे कागद ऊपर

बैठ्यौ लीक-लिकोळिया काढूं हूं

देवूं हूं

लोगां नै कूड़ रा काठा विसवास

अर आंकां रै सहारै

मन री बात मांडूं हूं।

म्हारै जबान नीं है

नींतर म्हैं सिंघ री भांत दहाड़तौत कोई कविता

अर फाड़ देवतौ लोगां रै

कानां रा पड़दा

आपरै बोल्याळ सूं

गुंजा देवतौ आखी बणराय

के म्हारी कविता

म्हारी कलम बच जावती

अर लोगां रै हिवड़ै मांय

सबद-सबद रच जावती।

म्हैं आंधौ हूं

निरंध

के होवती आंख्यां

एक सफेद रोसनी री तलास मांय

कणांई परंपरा री लाठी पकड़

डंग-डंग आखड़ूं

तौ कणांई इतिहास रौ कांधौ झाल’र

पग-पग पड़तो फिरूं।

म्हैं आंधौ हूं

आजलम

नीं म्हने पगां माथै झळती

दीसै है

नीं डूंगर माथै बळती

म्हैं आंधौ हूं-अधीन

के म्हांने नीं राह दीसै है

बणराय।

स्रोत
  • पोथी : जातरा अर पड़ाव ,
  • सिरजक : मोहन आलोक ,
  • संपादक : नंद भारद्वाज ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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