बैठ लिख दूं

थारा हाथ पै

थारो नांव

म्हारा पेन सूं,

हलक में सूं कढता

आखरां सूं!

रख दूं छूं

अेक अछूतो गुलाब

थारी हथेळी पै...

दोनीं मिल'र

छोडद्यां छां

अेक तितली

आकाश में...

ऊंका

सतरंग्या रूप

सूं

मंड जावैगो

इंद्रधनुस!

महाकाव्य

मांडतो

थारो मून

झरणों बण'र

भिगो देवैगो

म्हारा तन-मन का

रूखापन कै तांई...

देख!

बसंत बी

रंग रह्यो छै

ईं साल तो

थारा रंग में

थारी हांसी सूं

फूट्यावैगी

प्रेम की

दो कूंपळां

सूखती डाळ का

माथा पै!

स्रोत
  • पोथी : बावळी - प्रेम सतक ,
  • सिरजक : हरिचरण अहरवाल 'निर्दोष' ,
  • प्रकाशक : ज्ञान गीता प्रकाशन, दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
जुड़्योड़ा विसै