फुलड़ा मत तोड़,

धरा धूजै है।

पलकां री कोर

रगत-रंगी क्रान्ति देख, सूजै है।

पथरीली धरती री कूख तळै,

पावक री झळ उपड़ै।

नई आस जुगरी अब,

सौरभ ले जलमै है।

फुलड़ा मत तोड़,

धरा धूजै है।

साची है, साची है—

पापी रा प्राण आज

शोषण नै पूजै है।

झूठ नहीं पण या भी—

श्रम री हुंकार आज,

बलि-वेळा बूझै है।

अब वो दिन दूर नहीं—

धीरज नै धारो रे।

फुलड़ा अंगारां रो

रूप धर्‌यां के होसी?

इतणी री बात आज

हियै तो विचारौ रे,

जणो-जणो बूझै है!

फुलड़ा अंगारां रो,

रूप धर्‌यां के होसी?

फुलड़ा अंगारां रो,

रूप धर्‌यां के होसी??

स्रोत
  • पोथी : किरत्याँ ,
  • सिरजक : मेघराज मुकुल ,
  • प्रकाशक : अनुपम प्रकाशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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