म्हैं पूछ्यौ उणनै आजादी रौ अरथ?
वा बताई हाथ सूं घर री खुली रसोई
अर उणरी कजळिजियोड़ी भींतां।
म्हैं कीनौ सवाल- ‘औरत री आजादी?
वा टिचकारा भरती आपरै हाथ नै लेगी,
लिलाड़ री टीकी अर माथै रै सिन्दूर कानी।
म्हैं फैरूं संभळ’र कीनौ सवाल-
‘औरत होवण रौ आखिर कांई अरथ?
उणरै चैरै माथै व्यापग्यौ
अेक सरणाटौ
सून्याड़ अर मून।
म्हैं देख्यौ-
भींत सूं लटकतां
कलेंडर में
‘मरवण’ री आंख में आंसू।
तोड़ती मून
बींधती सरणाटौ अर सून्याड़
बोली वै
किशनगढ़ री अबोली आंख्यां–
औरत होवण, नीं होवण
समझण नीं समझण सूं
कांई अरथ है थारौ?
म्हैं नीं जाणूं।
म्हैं तौ फगत इतरौ जाणूं
कै अेक देही है औरत
अर सगळा आदमी ‘विदेह।'