सांची कहतां पांण चरड़को सो लागै—

पण, कह्ये बिना अब रह्यो जावै।

आज मिनख बीमार घणों है,

गळग्यो है वीं रो चरित्र,

सारै तन पर है दाग और छिबका करणी रा!

माथै में चिंतन री जगां,

गूमड़ो निकळ्यो राद भर्‌योड़ो।

कुळै गूमड़ो, खाग्यो अब विस्तार,

चीरो लागे बिना, भाल अब होवै कोनी।

बाकी दाग घणां जूना है,

अै तो मिटता मिटता मिटसी!

रोग एक हो तो इलाज भी जल्दी होवै,

अठै हजारूं रोगां सूं तन मन गळ रह्यो है।

मिनख बापड़ो!

मिनख बापड़ो!!

सांची कहता पांण

चरड़को सो लागै—

पण,

कह्ये बिना अब रह्यो जावै।

स्रोत
  • पोथी : किरत्याँ ,
  • सिरजक : मेघराज मुकुल ,
  • प्रकाशक : अनुपम प्रकाशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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