यूं वसन्‍त आयो अठे कठे करेला बास

पाणी बिन सब होगियो बन बागां रो नास।।

दुख-दाजण दूरा कर्या सुख द्या अगिण अणन्त

जतन करण जग झांकियो आछी वगत वसन्त।।

सगला रो साथी रह्यो, थारो ही सुख ओढ़

धूड़ हँसी धोरा हँस्‍या कळियां हँसी करोड़।।

पेड़ झाड़ सब झेलग्या पतझड़ झबरी हाण

आपद झेल्यां ही हुवै दृढ़ता री पैचाण।।

तीतलियाँ बाँटण चली फूलां रो रंग लेर

मधुबेलां मधुमाखियां रवी रतन रस हेर।।

वसंत इण मिनख चित खेंच सुंआली रेख

बिस बिसवास कर, लिखे सत सरबत रा लेख।।

कांटा-भाटा काल हुया, राख्या आंटा प्राण

कुण प्यासो है प्रेम रो पुस्पां करी पिछाण।।

केसर रा सिंणगार सूं घमक उठी घाटीह

मलयज री मनवार अठ महक उठी माटीह।।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत ,
  • सिरजक : जयसिंह चौहान 'जौहरी' ,
  • संपादक : डॉ. भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थान साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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