सिद्धान्त कठै राखूं?

ताक में?

इण दिनां वीं रो भाव नीचो जा रह्यो है!

कोई नीं पूछै सिद्धान्त नै,

उल्टी हाँसी होवै!

सिद्धान्त बापड़ो,

आपरी बेबसी पर रोवै!

जे कदै वो झुक पातो,

जे कदै वो सलाम कर पातो,

जे कदै वो सलाम कर पातो,

जे कदै वो छाती ऊपर

धोखैं रो डूंगर धर पातो!

जे कदै वो औरां नै माल-मलीदा गिटातो

अर खुद खातो!

चाँदी अर सोनै री तुला पर तुल-तुल के

औरां नैं राजी करतो,

अर हाँ-में-हाँ भरतो।

जे कदै वो आजकल रो

असल झूठ बण जातो।

और भ्रष्ट होके भो—

भ्रष्ट नै सजा दे पातो।

तो फिर मिनख जमारो यूं क्यूं देख पातो?

सिद्धान्त नै पूछै कुण है?

आज हर मिनख “सौक्यूं” देखके भी

बोलो-बोलो बैठ्यो है!

जड़वत, मौत रो पर्यायवाची बणकै!!

स्रोत
  • पोथी : किरत्याँ ,
  • सिरजक : मेघराज मुकुल ,
  • प्रकाशक : अनुपम प्रकाशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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