बीं कैयो, म्हारो कोई दावैदार कोनी,
बींरै खातर नईं हूं धरती रो जीव
पण सियाळै री तावड़ै माथे ही,
बींरै देसड़लै री मुगत रागां गूंजै ही।
अर जद हूं चालती रैवूं, बो कळपै नईं
ना, बेबस हुय मनावै दूजै जलम खातर,
पण लखावै: सूरज बिन सरीर जी नईं सकै
ना, बिना गीत, आतमा अचाणचक, पूरो भरोसो...
पण अबै ओ कईं हुवै?
हाल दूजा पदारथ निसंसै तड़पै
बांरा बिड़द म्हांसूं गवावण—
चढ़ता, कळपता पदारथ जिका
ऊंडी गुफावां रा है, उमगै
अबोला सुरां खातर
आखर।
हूं हाल कैवूं, है इसा पदारथ
अगन रा, जळ रा, धरती अर हवा रा।
अर इणसूं, जद हूं कल्पना करूं,
दरवाजा ऊघड़ै, अर हूं म्हारो मारग लूं
भोर रै तारै पासी ऊंचो, झिलमल सीढ़ी सूं।