कद तांई

टूटतो-मटरतो रहगो

म्हारा बसवास को

इंदरधनुस!

अब तो सूरज देव

ढळग्या

लंकाऊं सूं

गंगाऊं की आढी...

ऊंचों हो'र झांकबा

लागग्यो दिन

कूंडा पै खड़ो हो'र

म्हारी नांई!

मोळबा लागग्या

सरसूं का पसब

पैळास मं पड़तो

फरक

हरदा मं खटास

आबा सूं प्हली

जै बावड़ज्या

थारी पथवार्यां

तो बणीं-बणाई

रह ज्यागी

म्हारी अर थारी बात!

कुण बगत को

झांक रह्यो छूं

ऊंची अेड्यां कर कर'र...

पण

दिन आंथबा सूं

प्हली

आबा का

थारा बचन

नं लागर्या पूरा

होता साक..!

उस्यां हाल बी

बैठ्यो छै सूरज

आथेणी

दसा का माथा पै

छान मून को,

थारा चेहरा पै

केसरिया

सावली उढ़ाबा कै

पूंछडे...

म्हूं तो बसवास को

स्हारो ले'र खड़ो छूं-

अस्यां थोड़ी

होवै छै

कै नं आवै

थू!

स्रोत
  • पोथी : बावळी - प्रेम सतक ,
  • सिरजक : हरिचरण अहरवाल 'निर्दोष' ,
  • प्रकाशक : ज्ञान गीता प्रकाशन, दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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