झांझरकै सूं भागा-नाठी होवण लागगी। गोपाळो काल रात नैं घणो सारो दारू पी आयो हो जकै सूं उण री मांदगी बधगी। डागधर बींनै सफा-सफा कै दियो हो कै दारू थारै वास्तै विस बरोबर है, पण गोपाळो सगळां री आंख्यां मांय धूड़ घाल-परो सेवट दारू रा घणां सारा गुटका गटकग्यो अर अबै मांचै माथै पड़ियो टसकै।

बीं री बडोड़ी बेटी जीवली पांगळी ज्यूं माथो गोडां रै बिचाळै घालनै बैठी, जाणै उण रै डील मांय सुन बापरगी हुवै, जाणै बा जींवती मरगी हुवै।

उण री साळकी मांय मसाणां रो सरणाटो पसर्‌यो हो। अेक बांस री तणी बणायनै उणरै माथै सीरखां धरियोड़ी ही। खूंट्या माथै गाभा टंगियोड़ा हा। अेक आळै मांय चिमनी पड़ी ही जिकै रै ऊपर धुंवै री काळी लीकाट घणी ऊंची गयोड़ी लागती। दूजै कानी अेक काच रोप्योड़ो हो।

जीवली रै असवाड़ै-पसवाड़ै चूड़ीउतार टाबर सूता हा। चार भैणां अर तीन भाई। सात जणां। कनली साळकी में बीं री मा आपरै धणी रै मगरां माथै हाथ फेरती जांवती ही।

मोडो बाबो जीवली रै कन्नैं आयो। चोखो पड़ोसी हो। आय’र बोल्यो, “कानां में डूजा देयनै बैठी है के? थारै बाप री हगीगत चोखी कोनी।”

बा फाट्योड़ै ढोल री तरियां फाटगी, “तो हूं करूं के..? हूं डागधर कोनी।”

मोडै बाबै इण सूं पैली जीवली नैं इत्ती बैंडी बोलतै कदैई देखी कोनी। बो अचुंभै में पड़ग्यो। उणनैं गंडक जेड़ो घूरण लागग्यो।

जीवली रो उणियारो काळो दराक तो होईज अर अबै खल्लां रो कूटियोड़ो सो लागण लाग्यो। जाणै मांयनै सूं बा घणी दुख्यारी हुवै।

“अरै, गैली!” बाबो घणो हेताळू होयनै बोल्यो, “तूं पल्लो खींचनै बैस जावैली जद बै मूरख री कुण सार-संभाळ करैला..? बीं रो सुभाव तो गंडक री पूंछ जियां है। जै बा सीधी हुवै तो बींरो सुभाव सुधरै। फेर भी आपां नैं आपां रो धरम निभावणो पड़सी।”

जीवली मांयली पीड़ नै दाब’र खीरै ज्यूं तातै सुर में भड़की, “म्हारै भवैं इयां सगळां नैं चौतळाई लेजायनै बाळ काढो। बींरो इसारो सगळै टाबरियां कानी हो। नैण डबर-डबर भरग्या। गळै में बसकां कीलां ज्यूं खुबण लागी। दो-चार पळ थम’र फेरूं बोली, “म्हैंमें भी तो जीव है, कोई भाटो तो कोनी। बाप बाप नईं बणियो तो दुसमण तो नईं बणै। बाबा! हूं उफतगी हूं। म्हैं सूं अबै…”

अेक मुड़दी-मुड़दी सी लुगाई नाक तांई रो घूंघटो काढ़्योड़ी आयनै बाड़ै रै अगाड़ी ऊभी हुयगी। उणरो चैरो पीळो जराक हो। घणा दिनां री मांदी लाग री ही। खाडां री तरियां आंख्यां…खुड्डा पड़ियोड़ा गाल…सगळो डील तिणकै ज्यूं पतळो…अर पेट…पेट ढोल ज्यूं फूलियोड़ो। देखतै पाण काळजो पसीज जावै।

दया सूं भर आवै।

तावड़ो बीं लुगाई रै लारै हो, जिकै सूं छायां जीवली रै माथै पड़ै ही। जीवली हळवां-हळवां आपरो मूंडो उठायो। मा सूं चौनजर हूंवतै पाण बींरै मांयनै अेक अजीब सी खळबळ होवण लागी।

मा बोली, “हूं तनैं हाथ जोड़ू हूं लाडेसर। ईं दफै म्हारै कैणै सूं तूं थारै बापनैं किणी डागधर नैं दिखा दे…बींरो इयां तड़फणो म्हैं सूं नीं देख्यो जावै…?” जीवली अेक दफै फेर मा कानी जोयो। उण री मा अणगिणत दुखां सूं अणमणी अर ऊदास ही।

“तूं कवै तो हूं थारा पग झाल लूं।” मा गळगळी हुयगी।

बाबो बिचाळै बोल्यो, हमै तो उठज्या। अरै तन्नैं जलम देवण आळी थारै पगां पड़ै है, अैड़ी पत्थर ना बण।”

बा सोचण लागगी। इण मन्नैं जलम देय परी अेक भाठो इण भोम माथै और बधायो। हूं के सुख पाऊं हूं! म्हारै जलम री के सारथकता है?...के भदरक है?”

“हाल लाडेसर, हाल!” मा फेर कैयो। जीवली ऊभी हुई। बापनैं जाय परी जोयो। मूंडो अर हाथ-पग सूजग्या हा। बा अेक सबद भी कोनी बोली। ओढ़णो लेय परी निसरगी।

कन्नै अेक फूटी कोडी कोनी ही। बा इणगी-उणगी पांच-दस रिपियां रै खातर धक्का खांवती रयी। फेर आपरै सेठ रै छोरै कन्नै पूगी जठै बा मजूरी करती ही।

मोट्यार। रंग सांवळो पण दीसण में फूटरी।

सेठ रो छोरो बींनै देखतै पाण हरियो करस हुयग्यो। बोल्यो, “कियां आई जीवली? थारो मूंडो उतरियोड़ो क्यूं? सैंग चोखी तरियां तो है…?”

जीवली उण रै कानी जोयो। बीं नैं बो संपोळियो लाग्यो। घड़ी-घड़ी होठां माथै जीभ फिरातो। जीवली उण सूं घिन करै पण आडी टेम माथै तो बो संपोलियो सदा काम आवै। बिनती सूं बोली, “कुंवर सा! बाप घणो मांदो है दस-बीस रिपियां रो जुगाड़ कर दो तो घणी किरपा हुवैली मजूरी में भरवाय दूंली।”

संपोळियो आड्यां घालतो रयो। फेर जीवली नै लाग्यो बा जमीं मांय धंस रैयी है।

सिंझ्यां तांई उणरै बाप री मांदगी कम हुयगी। बा आपरै गूदड़ां माथै पड़गी। मा घणो कैयो भावै जित्तो खा ले, पण बैं अेक कवो नीं लियो। बींनै लाग्यो के बींरै चारूं मेर बासती लाग्योड़ी है, धूंवो धूंवो है जिण में बींरो जीव घुट रयो है। कदेई-कदेई बा नेचो करै…बा आपरै घर नै छोड’र कूवो-खाड कर ले…ईं जिंदगी सूं तो मौत भली!

सिंझ्या रात मांय घुळगी।

सगळा टाबर-टींगर बींरै असवाड़ै-पसवाड़ै आयनै सूयग्या।

जीवली सोचण लागगी “ओ कैड़ो बंधेज है? बाप क्यूं दारू पीवै, क्यूं इसपरिट पीवै…क्यूं नीं इण नै सिपाई अपड़ै…क्यूं इत्ता टाबर जणावै। अर सगळा सूं बेसी बात कै बा खुद क्यूं इण सगळां रै खातर मरै-खपै। हजार दफै बाप नै समझा दियो, तूं नीं कमा सकै तो असपताळ जायनै समझ आव, जिकै सूं मा बापड़ी रो तो इण जणनै रै रोग सूं पिंड छूटै। पण बो नीं मानै। बा गळगळी हुयगी। इण सगळां रै खातर बीं रो ब्याव नीं हुयो। घर री दसा देख परी बैं गोपाळियै नैं साफ कै दियो “हूं अबार नीं परणीजूंला। तूं थोड़ोक समझ, हूं जे इण घर सूं आगी होय जावूंला तो म्हारा सैंग भैण-भाई भूखां मर जावैला…म्हारी मा जियांमौत मर जावैली…ओ घर चौपट हुय जावैला। फेर गोपाळियो अडीकतो-अडीकतो धापग्यो…। दूजी सूं फेरा खा लिया। बीं दिन जीवली माथो पकड़ चसट-चसट सरणाटै में रोई ही…पण किणी अदीठी सगती सूं बा बंधियोड़ी ही। चावती हुई भी इण घर नै नीं छोड सकी। फेर बीं नै लाग्यो कै अै सगळा घरआळा बींनै दुधारू गाय समझै। बींरै घड़ी-सुख नैं भी नीं देखै। मा, बाप अर अै भाई-भैण सगळा बींरो धाप’र सोसण करै…अर बैं अचाचूक रो जाणियो के बींरै सगळै डील माथै चींचड़ चींचड़ चिपग्या है। अै घरआळा…बींनै लागियो कै माणस नईं चींचड़ है, बींरो लोई पीवै है…बा आकळ-बाकळ हुयगी। बा अेक वितिरसा सूं भरगी…“हूं सगळां नैं मसळ काढ़ न्हाखूंली…घिराण घिराण।

उण ताळ बींरी मा आई। आयनै बोली “लाडी, बापड़ो थारो छोटोड़ो भाई भूखो है। थोड़ोसोक दूध लायदै नीं?” बस…, बा रीस रै मांय काळी-पीळी होयनै बरजी, “सैंग जणा मन्नैं खा क्यूंनीं जावो? थे घर आळा क्यूं म्हारो लोई पीवो…?” बा बसड़-बसड़ रोवण लागगी। मा छांई-मांई हुयगी। धीमै-धीमै अेक विचत्तर सरणाटो पसरग्यो। ना जाणै क्यूं जीवली ऊभी हुई, तपेली हाथ में लिवी अर मा रै गीलै उणियारै नै जोय परी अबोली-अबोली दूध लेवण नैं निसरगी।

पण फेर भी उणनै लाग रयो हो कै उण रै डील माथै चींचड़ चींचड़ चिपियोड़ा है अर उण रो लोई पींवता जावै है।

स्रोत
  • पोथी : आज री राजस्थानी कहाणियां ,
  • सिरजक : यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ ,
  • संपादक : रावत सारस्वत, प्रेमजी ‘प्रेम ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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