घण तोपां जागै नहीं, रीत सखी अदभूत।

चारण बयणां जागसी, ऊँघांणा रजपूत॥

वीरांगना यह व्यच्जित करती हुई कि चारणों के वचनों (भाषाणों) में क्या ही प्रभावोत्पादकता तथा जागृति उत्पन्न करने की शक्ति है, कहती है कि हे सखि! यह रीती क्या ही अद्भुत है कि भारत के वे सुषुप्त क्षत्रिय, जो तोपों की प्रचंड गर्जना से भी नहीं जागने वाले हैं, चारणों के ओज व्यंग्य-भरे शब्दों में वह शक्ति है जो तोपों की गर्जना गोलों में भी नहीं है। चारणों के वचन जागृति का क्या ही शंखनाद फूंकते हैं।

स्रोत
  • पोथी : महियारिया सतसई (वीर सतसई) ,
  • सिरजक : नाथूसिंह महियारिया ,
  • संपादक : मोहनसिंह ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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