तूँ नांही नांही सूँ लागा, साच न सूझै मांही रे॥
परम सनेही छाड़ि आंपणौ, विष इम्रित कर खाजै रे।
सूकर स्वांन स्याल कउवा गति, काल सदा सिरि गाजै रे॥
हंस बटाऊ परधरि वासा, अब तूँ समझि सयाणाँ रे।
पांच सात दिन एक आध में, ऊठि अकेला जांणा रे॥
कालकहर की चोट सकल सिरि, कै मार्या कै मारै रे।
जन हरीदास भजि रामसनेही, सरणौं राम उबारे रे॥