राम विसारि मांरे ‘प्रान,’

कुवधि परिहरि सुमर हरि हरि, सुरति ‘सिंध’ निधान॥

उदरि अवला जठर झलमैं, तहां लियो राखि॥

गाइ हरि अभिमांन तजि नर, आन सबद भाखि॥

सिंघ स्याल पतंग कुंजर, सरप कीटी काग॥

मछ कछ ‘होइ’ जलां डोल्यौ, तोकूँ अजहूँ आइ लाज॥

‘मानिखा’ अवतार वड़ निधि, खाइये कहूँ ‘कालि’॥

जन हरिदास समझि विचारि सदगति, रांम नाम संभालि॥

स्रोत
  • पोथी : महाराज हरिदासजी की वाणी ,
  • सिरजक : हरिदास निरंजनी ,
  • संपादक : मंगलदास स्वामी ,
  • प्रकाशक : निखिल भारतीय निरंजनी महासभा ,
  • संस्करण : प्रथम
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