मन मगन भया जब क्या गावै॥
ये गुन इंद्री दमन करैगा बस्तु अमोली सो पावै।
तिरलोकी की इच्छा छाँड़े जग में बिचरै निरदावै॥
उलटी सुलटी निरति निरंतर बाहर से भीतर लावै।
अधर सिंहासन अविचल आसन जहं उहां सूरती ठहरावै॥
त्रिकुटी महल में सेज बिछी है द्वादस अंदर छिप जावै।
अमर अजर निज मूरत सूरत ओअं सोहं दम ध्यावै॥
सकल मनोरथ पूरन साहिब बहुर नहीं भौजल आवै।
ग़रीबदास सतपुरुष विदेही साँचा सतगुरु दरसावै॥