गोविंद किसौ औगुण मांहि,
सुख नांव सागर छाड़ि हरि को, दुख ‘चल्या’ जमपुर जांहि॥
कहति जोगी रहति रोगी, रोग की घरि खांनि॥
सोई रोग दिन दिन डाल मेल्है, वूड़ि गया अभिमांनि॥
पहरि मुद्रा मगन हूवा, रहतिन आई हाथि॥
पछै रावल छाड़ि कावल, चल्या ‘जुग कै’ साथि॥
पांच राषि न प्रेम पीया, ‘दसूँ’ दिसा कूँ जांहि॥
देखि अवधू ‘अकलि’ ऊँधा, अजहूँ चेतै नांहि॥
हरि नांव निरमल ‘निकट’ नांही, विकटि खेलै वाइ॥
जन हरिदास जोगी छाड़ि आसण, जमलोकि आवै जाइ॥