रे मन सूर समै क्यूं भागै।
ताथे मरण मांडि हरि आगै॥
सूरा सिर परि खेले, तब राव रंक करि पेले।
जब दूजा दिलि नाहीं, तब डाकि पड़्या दल माहीं॥
चिरकालहु कोई जीवे, तब सार सुधा रस पीवे।
ते चाकर चित माहीं, जे चोट मुंहैं मुंहिं खाहीं॥
जब उतरि उतारै जूझे, तब व्यापक सबहीं बूझे।
जब सूरा सिर डारै, तब रज्जब राम सुधारै॥