मेरो मन बसि गो गिरधर लाल सों॥
मोर मुकुट पीताम्बरो गल वैजन्ती माल।
गउवन के संग डोलत हो जसुमति को लाल॥
कालिंदी के तीर हो कान्हा गउवां चराय।
सीतल कदम की छाहियाँ हो मुरली बजाय॥
जसुमति के दुवरवां ग्वालिन सब जाय।
बरजहु आपन दुलरुवा हम सो अरूझाय॥
वृदांवन क्रीड़ा करै गोपिन के साथ।
सुर नर मुनि सब मोहे ठाकुर जदुनाथ॥
इंद्र कोप घन बरस्यो मुसल जल धार।
बूडत बृज को रासेउ मोरे प्रान -अधार॥
मीरा के प्रभु गिरधर हो सुनीये चित लाय।
तुम्हरे दरस की भूखी हो मोहिं कछु न सोहाय॥