अचुंभै री घेर-धुमेर में
वा भटक, अर भटकै है।
हळ-हळ उछळती चौमासै में
हबोळा खावती
नागी अर बांडी नदी
तपत तावड़ै रै दिनां अलोप व्है जावै
इन्दर रौ वरदांन
पाणी
सूरज री बळबळती हजार-हजार
जीभां सटक जावै।
आज,
घड़ी उंचायां माथै, तिरसा कंठ
अचुंभै री घर-घुमेर में
वा भटक, अर भटकै है।
बड़ी अजूबी है आ धरती
वा सोचै अर इचरज करै
के अेक देव रौ वरदान
दूजै नै कित्ती दोराई?
इंदर गाजै नै सूरज तपै
जुगां-जुगां सू औ इज व्है
आज,
दो इज तौ ही रोटी
जीमग्या टींगर
चिन्यो-सोक हौ पांणी
पावणां री मनवार खूटग्यौ
आज,
हांपळती चालती
सूख्योड़ी नाडी री पाळ-पाळ
भूखी-तिरसी पाणी जोवै
सामीं चौफेर
चिलकतौ तावड़ौ है
तिड़कती आस है
आज वा
भटके है, अर भटके है!