चढ पगोथियां

सांभ पगां नै

चढ आकासां

बाथां भर थूं

जीवण नै अंगेज

म्हैं ऊभी पसवाड़ै थारै

म्हैं ल्याई थारौ जीवण इण धरती माथै

म्हैं अजै कंवारी, पण मां हूँ थारी।

थूं अबोट प्रीत री सेनांणी

साखी म्हारी अजांण पीड़ रौ

म्हारै अंतस रौ उजास

थारै डीलां!

म्हारा करण,

थूं अंस वांरौ

जिका कै परणी नीं देह म्हारी

पण परणी आतमा

वै म्हारा जीव रा धन

हारग्या लड़ता-लड़ता

समाजू रीतां री पड़छांवळ्यां सूं

पण, म्हैं थारी जांमण

म्हैं नीं हारी

निपट अेकली लड़ती रैयी

अबोली पण तीखी मोट लियां

करगी भींतां पार

इण खातर के

म्हारी कूख रचती ही थारौ जीव

अर थूं नीं हौ पाप री भारी

आज,

म्हैं थारी सिरजणहार

मोद में माती

पावंडा-पावंडा चढ़तौ देखूं थनै

ऊंचौ, औरू ऊंचौ

मन रै तळाब में गोता खाऊं

आज,

गुमान पळकै है म्हारै चैरै।

स्रोत
  • सिरजक : चंद्रशेखर अरोड़ा
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