फेरूं समझूं
खुद सूं जुडियोड़ै इतियास रै
सबद सबद नै
स्यात कठै भूल हुवै
झिकोळा खावता
बातां रा समंदर
सूखता सा निजर आवै
लागे अै बात
इतियास नी बण सकी
म्हैं अेक अैड़े जंगल में
लड़तो रैयो
जठै म्हारै अलावा
दूजो कोई नी हो
क्यूं नी बण सकी
खुद री अेक ओळख!
अर क्यूं नी खुल सकी
म्हारै सपनां री पोट?
लोग आवता रैया
थापी देय'र जावता रैया
कांई आं रो आपरो भी
इतियास होसी?
पण क्यूं
म्हैं इतियास री जरूरत नै
म्हारै सूं अळगी मानूं
म्हारो मकान, म्हारो घर
म्हारी कविता, म्हारो नांव
आं नै आं रा अरथ
समझ न आवै
म्हैं रोज भागू
संभाळूं इज्जत नै
क्यूं के इण रो इतियास
जमानै मुजब
लिख्यो जासी
म्हारै मन में नी
जस रै गीतां रो कोड
फेरूं म्हें इतियास री
बात क्यूं सोचूं
इतियास रा पात्र
आपरी ठौड़
जस लूटता होसी
म्हनै कदै चिन्ता नी हुई
के लोग म्हारै गैलैपणे सारू
कांई कैयसी
म्हैं कदै
आ सोच'र
म्हारा पग नी उठावूं के
म्हारो इतियास कैड़ो बणैलो
आ दिनां
म्हनै उण री फिकर नी।