जीवण को जंजाळ तो

मृगमर्चिका सो

चालतो रह छै

जस्यां-जस्यां सुपणां नै पकड़्यो

अस्यां-अस्यां पंछी की नाईं

पंखां नै फड़फड़ा'र

हाथां सूं दूर अर

आंख्यां सूं ओझळ

हो जावै आसमान में!

फेर बी तो

मन रूपी तितली

भांत-भांत कां फूलड़ां

पर विचरती फरै

साम,दाम,दण्ड,भेद री नीति में

यूं उळझी रह छै

ऊंडै काळज्या में अंतहीण

महत्वकांक्षा को रूंख रोप'र

चालाकियां को

झूठो पाणी दे छै

सफलता को छोटो गेलो

हेरती फिरै छै

जीवण रो जंजाळ!

अतनी कर'र बी

झूठी आस में

सांचो सुख पाळै

असी आस लगायां

जगत नै छोड'र

माटी में मिल जावै

मिनख कै लारां-लारां

बळ जावै

जीवण को जंजाळ बी।

स्रोत
  • सिरजक : मंजू किशोर 'रश्मि' ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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