खरगोसियौ नी दौड़ सकै

अणथक-लांबी दौड़।

मिरगलै रा रूपाळा सींग,

अटक जावै झाड़खां मांय।

धर मजलां, धर-कूचां

रेत रै समंदर दौड़तौ,

कद तांई तिरसां मरतौ रैवैला ऊंट।

अेक दिन सेवट

मुसाफरी सूं पाछौ

आवणौ पड़ै जातरू नै

घर रै आंगण रै अधबीच।

केई’क बसावै

चांद-तारां माथै बस्तियां।

अर कई’क अजै तांणै,

धरती अर आभै रै बीचोबीच,

मां जायां सूं

सरदी-धूप बिरखा बाहला।

आखिरकार सबद कदै तांई बरतैला

सगळां सागै समभावू

नह-चावू बरताव?

सगळा सबदां री हद रै मांय

भाखर-रूंख

नदियां-नीझरण

चांनणी रात अर चमकती थार री बेकळू।

पळपळतौ-परभात अर

भादरवै री नखराळी काजळिया तीज।

पण रात रै पाछलै पौर में

आपघात करै जद नवी बीनणी।

मारीजती कुरळाय नीं सकै

कोई कन्या नवजात।

अकूरड़ियां माथै बिलखै मानवी आंतरा।

उण बगत म्हनै याद आवै-

कंपकंपी छूटोड़ौ दौड़तौ

थाकोड़ौ खरगोसियौ।

झाड़खां में सींगड़ा उळझायोड़ौ,

रूप-गरबीलौ तड़फतौ मिरगलौ

अर बेकळू में आकळ-बाकळ,

तिरसां मरतौ दौड़तौ ऊंट।

म्हैं सोचूं इण गत बिसूरतौ

आपरी हद री आंट

कदास थे सगळा,

कदैई इणगत सोचता व्हौला?

स्रोत
  • पोथी : जातरा अर पड़ाव ,
  • सिरजक : आईदान सिंह भाटी ,
  • संपादक : नंद भारद्वाज ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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