पाणी री बारी ही

कालै रात

नौ सूं बारह!

हाथ में कस्सी लियां

भाजतो रैयो

नहर सूं खाळै

खाळै सूं खेत तांई

नक्का-बंधा संभाळतो।

बगत पूरो हुयां पछै

कोनी गयो ढाणी

कींकर जावतो

अंधारी रात में

सूनी छोड़’र

एकली नहर नैं।

पड़्यो रैयो पटड़ै माथै

दिनूगै सूरज री साख में

पंखेरुवां नैं भोळायी

नहर री आंगळी झलायी

अर नचींतो सोयो

ढाणी में

हांडी बगत तांई।

स्रोत
  • पोथी : चीकणा दिन ,
  • सिरजक : डॉ. मदन गोपाल लढ़ा ,
  • प्रकाशक : विकास प्रकाशन, बीकानेर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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