म्हारा पाड़ा में

भवन-निरमाण सारू

कोई नै पटकाई छै रेत

रूई-सी नरम-नरम

चूरमां-सी मनभावण

ठंड़ी-ठंड़ी रेत, बाळू रेत।

पाड़ा की टाबरटोळी

दिनभर खेलै छै,

सेळी-सेळी रेत में

खावै छै कुलामुंड्यां

लथपथ हो जावै छै रेत में

नाक-मूंडा हो जावै छै अेकमेक

बणावै छै, मनचाह्या घरोंदा

म्हूं देखूं छूं

बाळकां को

रेत सूं हेत

म्हनै याद हो आवै छै

म्हारो बाळपणो

मन करै छै, यां बाळकां की नांईं

म्हूं बी रेत रमूं

म्हूं बी रेत में कुलामुंड्यां खावूं

अपणा मन का घरोंदा बणावूं

पण अम्मा को कहणो छै

‘अब म्हारो लागै चोखो

रेत में रमबो, रेत सूं खेलबो’

अम्मा को कहणो छै

‘अब म्हूं न्ह र्‌यो बाळक

म्हूं मोट्यार होयग्यो

म्हूं रेत में रमतो लागूं चोखो।’

सुण’र अम्मा की सीख

म्हूं नफापड़ पड’र

बैठ जावूं छूं, छानमून

मन मार’र

सोचूं छूं, कास म्हूं बी

बाळक होतो।

स्रोत
  • पोथी : ऊरमा रा अैनांण ,
  • सिरजक : अखिलेश ‘अखिल’ ,
  • संपादक : हरीश बी. शर्मा ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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