म्हैं लिखतो थारै प्रेम सूं भीज्योड़ी
रस झरती कवितावां
मिलावतो कुदरत रा न्यारा-न्यारा नजारी सूं
थारा गाल, आंख्यां अर होठ
जींवतो हरेक बारी लिखती बरियां
आपणै बिचाळै खिंड्योड़ा
अंतरंग पलां नै
म्हैं लिखतो आपणी बातां बीं टेम री
जद थम्योड़ी हुया करती ही दुनिया आपणै बिचाळै
थम जावती बगत री सूंई बीं टेम
पण नीं लिख सक्यो
म्हारै हेत री नीसाणी
इण मांय सूं कीं भी
अेक आंक ई नीं मांड सक्यो
जिकै रै मिस लुभाय सकूं थानै
नूंवै नकोर आसिकां री तरियां
म्हैं मांड्यो हो कांति
पण बेरो नीं बो कियां गैरो होय’र
होयग्यो क्रांति
म्हैं मांडणो चावै हो हेत
पण मांडीज्यो खेत
म्हैं उठावतो कलम
तो अैसास हुंवतो तलवार उठावण रो सो
अर चालण लाग जावती आपी आप
चीरण-फाड़ण जगत री अबखायां नै
म्हैं घणो कीं कर्यो म्हारी बेलण
थारै वास्तै
पण माफी चावूं
प्रेम री कविता नीं मांड सक्यो
अबै नीं बण सकूं म्हैं प्रेम रो कवि
म्हारी कलम फगत म्हारी नीं होय’र
जगत रै इन्याव सारू बरतण रो
हथियार होयगी है।