दादाजी री आंगळी पकड़

चालणो सीखतो टाबर

क्यारियां में खिलता फूलां नै चावै

दादाजी नै

तख्ती पे मंड्या आखर निजरै आवै

वे नी तोड़े फूल।

टाबर—

ठुणक-ठुणक करे

पगां ने पटकै

टगी करतो रोवण लागे

दादाजी तो बाँच लीधो

पण

टाबर किस्तर बाँचे

फूल तोड़बो मना है।

बाळक

मदरसा सूं बावड़ती बैल्यां।

तांक-झाँक करै

सोचै

तख्ती पे मंड्या आखरां ने

अणदेख्या करै

फूलां ने तोड़े

जेबां में भर लेवै

अर मेल देवे

किताबां रे बिच्चै।

गुणवंती

गौरी-पूजन करती

सपना देखती

गुणगुणाती

बाळां में फूलां ने टांकती बिचारै

उण रे खातिर

कुण, कदी, कठा तलक

याद राख'र लावैला

जूही रा फूलां रो गजरो।

दादाजी,

कळियां ने फूलां में बदळती देखता-देखता

सूख'र कांटा होयग्या

पण अबे भी

नस-नस में

खुशबू भरता याद राखै

फूल तोड़बो मना है।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : रमेश मयंक ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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