आकारबिहूण घोरमधार

अन्त-न-पार

निराकार-साकार सूं परबारो

तो है अंधारौ-ई-अंधारौ!

कियां होवै निरभै जीवण रौ पतियारो?

सोच्यां जावूं हूं बारम्बार

पण कठै सूं लावूं चींत-चांनणै तणा विचार?

च्यारूंमेर पसर्योड़ो है अंधारै रौ परवार

अंधारौ बण बैठ्यौ है जीवण रौ आधार

अंधारै रा अणु-अणु मांय

म्हैं थरप्यां जावूं हूं भौ-तणा रैठाण!

अचंभौ करूं

क्यूं रचीजी अंधारी रात?

डूब्यां जावूं

अंधारघुप री अतळ डूंगायां मांय

रात है अंधारै सूं घणौ भयावणौ है

मन रौ अंधारौ

म्हनै इण नासपीटै अंधारै सूं उबारौ!

कदास

रात होवती मनमोवणी सोवणी

प्यार-तणी रात

होवती किसी-क चौखी बात!

जणा होवती

चांनणी-रात

भौ री ठौड़

ऊपनती ऊजळै-मन सिंळायीगारी बात।

उघाड़ी-पुघाड़ी जूण

अंधारी गुफावां मांय

फांक रही है लूण-ई-लूण

अंधारै रा अणंत चक्रव्यूह!

अंधारै-मारगां

अेकली जातरा

कठै है कोई जोत-मातरा?

कदै पग

रतकुंड मांय जाय फंसै

दिग्पाळां रा दैत भयावणी हांसी हंसे

कदै मांस रा लोथड़ा उपरां

तिसळ-तिसळ जावै पग

अंधारौ जग!

मांयली बळतेड़ तप उठै

लपट नीं बणै, धुंवाड़ो-ई सपांसप उठै!

संकावां-तणा भौ-भूत सूं डरप’र पल्लो पसार्यां

परळै माचसी चींत रै हारयां!

रात भौ सूं काठी भरीजगी है

काळती-कामळ तरबतर भीजगी है

पण अठै-बठै कठै-न-कठै

कोई चांनणौ है जरूर।

स्रोत
  • पोथी : जातरा अर पड़ाव ,
  • सिरजक : kishor kalpanaakaa.nt ,
  • संपादक : नंद भारद्वाज ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी
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