आपां घणी बार अठै आया

घणी ताळ अठै बैठ्या

घणा-घणा रोया बतळाया नै

जीब रै आंटी देय—

मूंफळी रै छूंतकां रौ मांन राखंता

बिसाई खावण लाग्या

आपां रै सारू

आखौ बिरमांड

गुमघांम।

अजै तौ नसां रौ लोई नसां रै ताप नै

नीं औळखै

नीं धारै!

हौळे-हौळे टुळकतौ दिन

अठै-उठी बाकौ फाड़ै

फूलां सूं ढ़कियौड़ी म्हैल री भींतां।

आक-वाक।!

म्हैं थांरी हथाळी रै फालां नै गिणूं

अर थूं म्हांरी बिवायां

रै ओळूं-दोळूं उदासी री आदत पौखै

‘बरस रा बरस इणी भांत उथप जावैला!

थूं निस्कारौ न्हाक

म्हांरी अगाढ़ ऊंघ नै तोड़ण री चोस्टा करै

अमूंझता मना-ग्यांना

म्हैं बिचारूं कै तावड़ौ

आपरौ डौळ जाणता थकां छींया नै, अपड़ण रा

झांपळिया क्यूं भरै?

छिणेक रौ सुख

दुख री कपड़छांण सूं क्यूं डरै?

थोड़ी सुस्ताय नै अंग-रळियां कर

थूं थांरै मारग ढ़बै अेकली

अर म्हैं निरी ताळ थांरै खोजां रा निसांण नै

म्हांरै मंसोबां रा मांडणा बुहारतौ

जीव कसमस करूं।

स्रोत
  • पोथी : पगफेरौ ,
  • सिरजक : मणि मधुकर ,
  • प्रकाशक : अकथ प्रकासण, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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