हूं कांई?
कोरो डूंगर
झाल्योड़ो खंभो
खेजड़ो...
जाळ...
कै आक...
कै तळै चैंठीज्यो सिणियो
तूंबै री बेल..?
म्हारौ उघाड़ो
पळपळतो
हेमांणी काळजो देखतां ई
सूरज री लाडेसर किरणां
उतरै, करै रमझोळ
दूर सूं देखै काच
कैंवता जावै—
''बो रैयो पांणी रो छळावो!''
पांणी कठै है अठै!
चौखूंट पड़ियो है
सूको सून्याड़
बरसां-बरसां
बादळ री लीरी तक रो नीं पासंग!
साची काचां री देखी-कैयी
पण दीठ नै दीसै
सूकै सरणाट में
जागतो बैठो
तावड़ियो साच
कै बादळ रै वसूं नीं रैयी
म्हारी जूण
देखतो आयो है सूरज बाप
म्हारा, हां म्हारा कमतर...
धर मजलां, धर कूचां
दिनूगै-सिंझ्या
जा पूगै पाताळ
भरलै बारै में
खळ-खळ नांखदै देगां में
आडा आयोड़ा
काच उतारै दीठ
म्हारै पळींढै
कांसी री थाळी
म्हारी आंख्यां में झांकै तो दीसै
नीलम आभो...
आभै पसर्योड़ी हरियल बेलां
बेलां में पाणी
पाणी सूं तिरिया-मिरिया
म्हारी हेमांणी जूण!