अचुंभै री घेर-धुमेर में

वा भटक, अर भटकै है।

हळ-हळ उछळती चौमासै में

हबोळा खावती

नागी अर बांडी नदी

तपत तावड़ै रै दिनां अलोप व्है जावै

इन्दर रौ वरदांन

पाणी

सूरज री बळबळती हजार-हजार

जीभां सटक जावै।

आज,

घड़ी उंचायां माथै, तिरसा कंठ

अचुंभै री घर-घुमेर में

वा भटक, अर भटकै है।

बड़ी अजूबी है धरती

वा सोचै अर इचरज करै

के अेक देव रौ वरदान

दूजै नै कित्ती दोराई?

इंदर गाजै नै सूरज तपै

जुगां-जुगां सू इज व्है

आज,

दो इज तौ ही रोटी

जीमग्या टींगर

चिन्यो-सोक हौ पांणी

पावणां री मनवार खूटग्यौ

आज,

हांपळती चालती

सूख्योड़ी नाडी री पाळ-पाळ

भूखी-तिरसी पाणी जोवै

सामीं चौफेर

चिलकतौ तावड़ौ है

तिड़कती आस है

आज वा

भटके है, अर भटके है!

स्रोत
  • सिरजक : चंद्रशेखर अरोड़ा
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