म्हारे च्यारूंमेर पसरग्या
आडावळ-सा ऊँचा-ऊँचा
दरद रा डूँगर
बिछोह री झाड़-झंखाड़ में
कठै-कठै
निजरै आवै
उभरती आस ज्यूं
काळी-धोळी चट्टानां
जो आदि काल सूं
झेलती रैयी मौसम री मार
टूटती-बिखरती रैयी बार-बार
उणां रे पसवाड़े सूं उठ’र
टूटी आशावां री रेत रे लारै
सुख रा सपना
स्मृति रा समीर रा कांधा पे बैठ
उड़ता रैया हर बार
कदी हरख
कदी उमाव
तो, कदी विवश
कदी लाचार
अऱ
शेष होती जावै
सपना री टूटती
अनगड़ चट्टानी मूरतां
पण व्हा में
न्ह तो कारीगरी
न्ह जीवन री जीवटता
समय
अस्यो कारीगर तो कोनी
जो निखार सकै
मौत री माटी में मिली
थारी सोहणी सूरत रा चितराम
तो
दरद रा डूँगरा री
इणां ऊंची-नीची घाट्यां में
बिखरी कांकर्या-सी इच्छावां ने
बींणता-बींणता बण जावै
कोई गीत, कोई कविता
तो म्हें कीं करूं?
इणां
दरद रा डूँगरा में
भटकाव पावतो
जीऊं के मरूं?