घणी अबखाई है
म्हैं लिखणो चावूं कोई कविता
चिड़कली माथै
अर आंगणै ऊभा सबद नूंतै-
रूंख अर आभै नैं...
बाजै छम-छम पायल
अर सुणीजै कोई गीत!
प्रेम-पोथी खोलण री सोचूं
तद निजर आवै-
घर मांय ऊंदरा घणा हुयग्या
पोथ्यां री अलमार्यां मांय
ऊदाई भळै ले लियो आसरो—
कसारियां अर चिलचट्टा...
आं किताबी कीड़ां रो नांव नीं जाणूं
अर म्हैं अणसरतै लिखण लागूं
प्रेम माथै नीं, ऊदई माथै कविता!
कविता कियां लिखीजै?
इण माथै कोई किताब कोनी।
कविता क्यूं लिखीजै?
इण माथै कोई जबाब कोनी।
बस आ जाण’र निरायंत है
कै कविता री ओळ्यां
जोवै आपरी निजर...
घणी अबखाई है
मगज इत्तै उळझाड़ मांय है
कै बगत ई कोनी
कीं सोच सकां
कीं बतळाय सकां!
हाथ इत्तो तंग है
कै उरलो हुयां सोचसां—
आ अबखाई क्यूं है?