मूण मैं च्यार मुट्ठी दाणा,

अर-

पीपा मैं दो ढोबा चून।

बता छोरी—“फावणा कै छै?”

घर की घरयाणी नै

बाळक बेटी सूं क्ही

‘माई- अेक हाकम,

अेक अहलकार

अेक सैणो।

च्यारूं खाटां पै बैठ्या छै

अर बापू

दोनी हाथाँ बीचै स्याफी ले’र

हाँ मारा, हाँ मारा क्ह’र्‌यो छै।

बडो भायो-

बीजणी सूं बा’ळ उडातो,

खुद बीजणो होर्‌यो छै।

पण री माई- थू तो या बता

ये बी मनख छै कै!”

अर ज्ये ये मनख छै तो-

दा’जी रूघनाथा जी, अर चाचा करीम जी

जस्या क्यूं नं मुळकै।

अर क्यूं नै क्ह’ बापू सूं भायो

अर म्हसूं बेटी।

अर ज्ये ये मनख कोनै,

तो बापू- क्यूं कर र्‌यो छै हांजी म्हारा

क्यूं नै भगावे यांईं

उजाड़ला ढांढा जस्यां।

बाळक बेटी की बात सुणताँ ईं,

माई का हाथ को चीमटो काँपग्यो

अर कांपणी नै रोकबा तांई दांत भीच्या

तो कुरकटो बखरग्यो।

वा जाणै छी-

काँपणी

अर दाँत भींचबा को भेद।

पण, करै तो कांई करै?

ऊंका दाँत तो बारै

हांजी मारा करर्‌या छा।

अर दळबा लेखै तो चाइजै,

पोपला मसूड़ा न्हं

मजबूत डाढ़ा।

पण यां नै तो

ऊंकी डाढाँ पै भी

डाढ़ दे मली छै,

वा करै बी तो कांई,

क्यूंकै वा छै हाल भी

घर म्हायां की

गरीब की

जोरू।

स्रोत
  • पोथी : धरती का दो पग ,
  • सिरजक : गोविन्द हाँकला ,
  • प्रकाशक : क्षितिज प्रकाशन (सरस्वती कॉलोनी, कोटी) ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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