दीवा परतै

बळतो रऊँ म्हूँ

नित नवू सिरजण

करतो रऊँ म्हूँ.!

जैम दीवा नी लौ

ऊपर उठी

आपड़े च्यारी आड़ै नू

अंधारू मटाड़ी

हाँप अर रांडुवा नो

भरम मटाड़ी

यथार्थ नू चितरण करै है!

म्हूँ पण...

आपड़ी कविता नी करणैं थकी

आपड़े च्यारी आड़ै ना

दिसा भरम मनकं नै

हर्दा माथै पड्यं

अंधारा नं वादळं छाँटी नै

यथार्थ नो

हूरज उघाड़वो च्हाई र्यो हूँ।

अटले

दीवा परतै बळतो रऊँ म्हूँ

नित नवू सिरजण करतो रऊँ म्हूँ।।

स्रोत
  • सिरजक : विजय गिरि गोस्वामी 'काव्यदीप' ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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