झर-झर झडै

रंग पत्तां सूं

झर-झर दीठ भरै।

पवन हलावै

परस

अचपळी

छिन-छिन छेड़ करै।

सुई सांझ

संध्या बंदन नै

रिख-सा रूख

अटल

एक टांग ऊभा है

साध्यां,

सांसां स्यान्त, सरल।

पूरब खोलै केस आपरा

पिछछम मांग भरै |

झर-झर झरै

रंग पत्ता सूं

झर-झर दीठ भरै।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : मोहन आलोक ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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