अरी धरती—

नं तो तू अस्यां जीती

अर नं अस्यां मरती

जे थारै भी होता—

दो पग।

फेरूं तू नं खाती

चक्कर भूर्ंया—

घूम-घूम’र चालतां बी।

जे थारै होतां दो पग—

तू भी कदी कदी

पाँव फाँकती

दरद सूं छटपटा’र

अमूजी सूं भर’र।

अर ठुकरा देती

चांदी की थाळ्यां मं

परोस्या पकवान

ज्ये होता थारी आंतड़्यां

खाडबा लेखै।

कुण की होती मजाल

करबा की थारी छाती पै

घाव—

अर उपाड़बा को थारी

रूंवाड़ी।

कोई बी म्हैल पातो

छानै सूं बी

थारा लत्ता मं

पटाखा।

नं कोई मटार पातो

थारी काया का

चतराम

जे होता थारै भी

दो पग।

रूंथ’र फांक देती

लूंठा सूं लूंग जागीरदार

अर सेठां नें

भल्याइ होता वांकै

कस्या बी लठैत।

बचा लेती खुद नै

तू भी सरग आसमान

सूं आती हरेक

बपदा सूं

क्यूं कै तू चालती

थारी मरजी सूं

बना बन्धी

जे होता थारै भी

दो पग।

होती लाचार

बना हाथ

माथा कै

क्यूंकै

तू जाणती चालबो

अर—

चाल्यां सूं ईं बणै छै सारा काम

ईं लेखै

जरूरी छै

धरती का

दो पग।

स्रोत
  • पोथी : धरती का दो पग ,
  • सिरजक : गोविन्द हाँकला ,
  • प्रकाशक : क्षितिज प्रकाशन (सरस्वती कॉलोनी, कोटी) ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
जुड़्योड़ा विसै