दूर-दूर तांई
नीं दीख रह्यो
अेक छोटो सोक
रूंखड़ो बी,
जींकै नीचै
मिलैगी
अेक झंवरो भर
छायां...
दीख जावैगी
फूटती दो
कूंपळां
पण!
सांय-सांय
करै छै
अठी का गैला
अेक पग आगै
नीं बढै
बळबळती रेत का
आंगणा में...
पाछो म्हूं
बावडूंगू नीं,
अेक बूंद पाणी
कांई
सबद भी नीं
उतर रह्यो
हलक में!
सूखती आस
मृगतृस्णां बण'र
पसर री छै
काळज्या की
पछैवड़ी पै
इण पै बी
ऊपर सूं-
अेकलोपणों
धोरां जसी
मळकती
थारै आबा की
आस...
रेगिस्तान होग्यो
थारो
म्हारो प्रेम!