बिरछ देवता!
हूं भूलग्यो थारै देवपण नै
बाळपणै
मा थांनै पूजती
दूध-पाणी
रोळी-मोळी
अकथ निछरावळ कर!
हाथ जोड़
विनती करती
थांरो तन
रूपा रो,
साख-डाळ सोना री...
पान -पुसब लीलम रा,
फळ रतनां रा
थे विष्णु!
थे पारस पीपळ!
थे सिव
बड़-जटाधर...
तैंतीस करोड़
देवां रा
थारै
पान-पान बासा!
चिड़ी-कमेड़ी,
जीव-जंत
गेलार्थी,
बेघर रा बासा!
खेत-रुखाळा,
पार-दुकाळा,
ओघड़ दातार,
जीवण-सार!
हूं,
लोटो झाल्यां
मा री आ विनती सांभळतो
पूछतो
ओ रूंख
देवता है के?
ओ देवता के?
अरै
ओ देवतावां रो सुरग
मिनख नैं बर
इणरी सांसां मांय जीवण!
धरती रो सिणगार
ईसर रो औतार
भटक्यां न
ठांयचो दें,
चूंच नैं
चुग्गो दें!
बिरछ रो तन परहित री काया!
मिनखां री माया
बिरछां री छाया!
लोप हुयग्या
मायड़ रा
बै मीठा बैण....
मायड़ रा बै बैण
याद कर'र
कुंहाड़ लियो हाथ
ठिमकग्यो!
उमस-सी उठी
तन में
मन में
बिरछ री
जड़ां काटतो
हूं
स्यात् ठैरियो...
पण,
फेर आंख्यां माथै
छायग्यो
सुवारथ रो काच!
अंधाधुंध चाल पड़ी
कुंहाड़...
खचाखच!
भचाभच!
बिरछ
सूख' र
डांड हुग्यो!
चेतण
जड़ हुयग्यो!
घर रो
फरणीचर बणग्यो
बच्यो- खच्यो
बळीतो हुयग्यो...
पण,
ओ के?
म्हारै पगां सूं
बैय चाली
लोही री धार!
जियां,
कुंहाड़
बिरछ री जड़ां नीं,
म्हारा पग बाढ्या हुवै!
साची,
बिरछ देवता!
हूं साव भूलग्यो
थारै
देवपणै नैं!
दै सो देव...
तू कांई नीं दियो,
मनैं बिन मांग्यां ई!
सीतळ छाया
रस-भीणा फळ
फूलां री बास बसी
नीरोगी हवा...
रस, गूंद, छाल
अर पत्तां री ओखद!
पण,
हूं तो
अबार नीं जाणू
जीवण रो साचो अरथ
सो
चलाय दियो फरसो
फरसराम री दांईं!
देख्या!
सपूतां रा किरतब...
मा रो
सिणगार खोसियो
धरती ने मोडी करदी!
वाह रे सपूतां!
मा नें
मा रांड करदी!
बिरछ देवता!
सुवारथ सूं आंधी
आंख्यां नैं
नीं दीखै थारो देवपणो!
हूं के जाणूं
देणूं!
हूं तो जाणूं-
लेणूं ई लेणूं!
थारो दरद,
थारी सुबक्यां
हूं नीं सुण सक्यो...
अर
फंफेड़ दियो
थारो जीवण-रस
देवणहाळो तन!
हूं नीं देख सक्यो
अर फंफेड़ नाखी
म्हारी कितरी ई
पीढ्यां नैं!
बिरछ देवता
हूं तो जाणूं
फगत म्हारो
राकसपणो!