बावळी!

कद सूं

न्हाळ रह्यो छूं

थारी बाट

अब तो बोलैगी

दो सबद

मिठास का...

पण यो कांई

अणबोल्या

कढ जाबो

कोई नीं छोकी बात!

याद कर

हवन की नांई

हूम घाली

म्हनैं म्हारी सारी

जिंदगाणी

अेक थारा हेत कै

पूंछड़ै,

सारी-सारी रात

जब पेड़ बी

सूता रह छै

नदी सूती रह छै

छान मून की

होई रह छै

बा'ळ,

अर खुद थूं

सूती रह छै

छक्क नींद में...

ऊं टैम की

म्हूं!

करतो रूं छूं

म्हूं, म्हूं सूं

थारी बातां...

थूं तो समझै

कोई नीं

या फेर!

म्हूं नीं समझ्यो

प्रेम का आंगणां

का मंडाण,

थारी हांसी सूं

हांसता

अर थारी

मळकण सूं मळकता

धोळा फट्ट

कोरा-कोरा

म्हारा मन में

छप रह्यो छै

थारो

दो आखरां को

मीठो नांव!

हर सांस

थारा उणग्यारा सूं

हो'र आवै छै

अर बढा दे छै

म्हारी पल-पल

जूण जेवड़ी...

नीं तो उणग्यारो

हट्यो

अर नीं सांसां रूकी

बरसां सूं,

अब करूं तो

कांई करूं..!

थूं बी नीं मानै

म्हारी बात

अर म्हूं बी नीं मानूं

म्हारी खुद की

जिद,

सांसां आती रै

ईं लोभ सूं

हर सांस कै

लारां-लारां

लै तो रैयो छूं

थारो नांव

थूं बी तो

अस्यां क्है छै...

पण मानै कोई नीं,

सांची क्है रैयो छूं

मरूंगूं कोई नीं

हां जीतो रहूंगूं

थारी

हर अेक-अेक सांस सूं

कदी तो आवैगी

थंई बी समझ में

बावळी!

स्रोत
  • पोथी : बावळी - प्रेम सतक ,
  • सिरजक : हरिचरण अहरवाल 'निर्दोष' ,
  • प्रकाशक : ज्ञान गीता प्रकाशन, दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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