आपनै ठा नीं है स्यात!

म्हांनै ठा है इण बात रो, कै कियां बणै भंभूळ्या

अर कियां फैल आकास में पकड़ लेवै म्हारी चोटी

आपरी गिरफ्त में।

जाणां हां म्हे प्रेतां रै इतियास रा सांवठा अर्थ

डूबीजती जावै म्हारी नियति आंधा समन्दर में

अभाव अर दमन झेलीजतां-झेलीजतां

होयग्या म्हे अस्तित्वहीण।

कदै म्हारै कनैं अर्थ बोध री धरती ही

अर जीवण रा हा ओपता बिम्ब।

तपती म्हारी धरती जिंया हजार अणुबमां रो ताप

नीं सैयो जावै अब मन रो उत्ताप

अस्तित्व होयग्यो स्व-बोध सूं रीतो

प्राणां पर पसरग्यो है स्याह काळो आकास

म्हे असहाय

राजनीति अर धर्म री उन्मादी आंख्यां

मन में फैल्यौ पड्यो है अणूतो भय

मीनारां रै मायावी बिम्बां में फुंफकारै

झेलां विषधारी सांप।

संत्रास री अणूती पीड़,

संकाळू आंख्यां सूं देखो आकास

शून्य अर शून्य।

प्रश्नां में डूब्यो जीवन होयग्यो प्रश्न।

क्षणां री अनुभूतियां में मात्र संताप

युग री उद्भ्रान्त्यां सूं म्हे आकान्त

जीवन रो पर्याय अब मात्र शून्य!

सत्ता रा नियामक बैठ्या सिंहासणां पर

लिखै इतियास री काळी किताब

शतरंज री चाल नीं होय जावै मात।

के होयग्यो होसी टैम...

पूगणो है म्हांनै सुरक्षा री ठांव...

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : गोपाल जैन ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति
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