कुआँ पै पाणी भरती

ऊँची ज्यात की बायर नै क्ही-

“धीरां पटक री पाणी

बेवड़ा उतारैगी कै?”

व्हा बोली— “अर थां जोर सू पटकर्‌या ज्ये?”

“म्हाँ...! म्हाको पाणी तो सात्यूं ज्यात पे छै,

अर थांसू तो म्हां—

अड़ावाँ भटावां भी कोनै।”

छोडो बातां काकी जी—

“म्हां अड़ी भटी लुगायां लेखै,

काकाजी की गण्डक की नांई

टपकती लाळ देखी...?

अर-व्हां का

नाखूना अर दांता की काई मैं

छाई गुलाबी रंगत नै

जीं दन देख लेगा-

भूल ज्यागा-

अड़ाबो,

भटाबो, अर-

उतारबो

ये गार का अणबोल्या

भाण्डा बरतन।”

स्रोत
  • पोथी : धरती का दो पग ,
  • सिरजक : गोविन्द हाँकला ,
  • प्रकाशक : क्षितिज प्रकाशन (सरस्वती कॉलोनी, कोटी) ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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